जैसे ही इस महामारी के बारे में खबर फैली कि पहले चीन, फिर दुनिया के और बड़े देशों में फैलते हुए ये भारत आ पहुँची, हाँ! मचा हड़कंप तब भी, पर ना जाने क्यों मेरा मन शांत था। जब जगह जगह सब संक्रमित हो कर मरने लगे, पता चला हमारे शहर भी आ धमकी ये तो… तब भी कोई राय, मन में कोई शोर क्यों नहीं था …
अब तो ग्लानि होने लगी थी कि क्या इंसान नहीं मैं? क्या लोगों को खोने का एहसास नहीं मुझे? क्या अपनी, अपने चाहने वालों की जान की चिंता नहीं मुझे? फिर ये क्या था जो इस कठिन, विचित्र संकट की घड़ी में भी लोगों की बातें, तकलीफ़ें सुन, क़रीब दिखावे की सहानुभूति दिखाने पर मुझे विवश कर रहा था? इतनी निर्दयी तो नहीं कि फ़र्क़ ना पड़े किसी की जान जाने का… मन टटोलने के बाद शायद सुराग मिले कि असल में इस शांति के घनघोर सन्नाटे का स्रोत है क्या…
मेरी अपनी विचारों की माला। जहां प्रश्न अभी भी ये उठता था कि लोगों के मरने का दुख होना चाहिए भी या नहीं, क्योंकि एक तरफ़ प्रकृति के भला होने का हवाला है और दूसरी तरफ़ किसी अपने के चले जाने का ग़म लिपित ख़ौफ़ सताता है। दूसरा शायद ये, की जो आता है उसे जाना तो पड़ता ही है, भले नाम कोई भी दे दें?
फिर शायद ये कि मुझे क्या होना है? रह लेंगे घर में, मंगवा लेंगे सैनिटाइज़र, पी लेंगे गरम पानी, बरत लेंगे थोड़ी और सावधानी। क्योंकि उन गरीब मज़दूरों के परिवार का हिस्सा नहीं मैं, असहाय बच्चों के दर दर भटकने का कारण थोड़ी मैं… किसी के घर चूल्हा ना जल पाना मेरे हाथों में कहाँ? ना मुझे ऐसे जीना पड़ रहा है, ना ही मर जाने का ऐसे ख़ौफ़ सता रहा है।
मेरा आख़िरी सिद्धांत बात करता है इस बारे में कि क्या पता ये एक सज़ा ही हो? धरती को इतना अमूल्य कष्ट देने का परिणाम स्वरूप खट्टा फल ही भोग रहे हो हम? और वैसे भी इतना कुछ माँगा भी तो नहीं है इसने? बस अपने घर में रहने का आदेश सुनाया है। कहा है मानो, बच सकते हो तो बचा लो अपनी जान, कर दिया इतना एहसान।
इसे अब हम धरती का क्रोध समझें, या फिर एक निर्माणाधीन अवकाश, जो हो रहा है वो बस हो रहा है। देखने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं दिया है। शायद ज़रूरत है ऐसे निर्माणाधीन अवकाश की, क्योंकि धरती के रसों को लगभग चूस ही तो लिया है हमने। बिना रहम स्वार्थी हो, एक क्षण ना दिया सोचने, की क्या इतना भर झेलने के काबिल भी है ये धरती… और थोप दिया 7.7 अरब लोगों को।
शायद तुम सही हो धरती, क्योंकि सिखाया ये भी है मनुष्य ने मनुष्य को, की अगर हक़ माँगने से ना मिले तो छीन लेना आवश्यक होता है। आशा यही है कि आने वाले समय में फिर से माताओं की तरह तुम्हारे महत्व को भी शून्य समान ना आंका जाये। जीवन तुम्हारे साथ है, ना तुम्हारे बाद, ना तुम्हारे बिना।
मित्राणी धन धान्यानी, प्रजानाम सम्मतानिव।
जननी जन्म भूमिश्च, स्वर्गादपी गरियसी।।