रात के उस समय, जब पूरी दुनिया सोयी थी.. अकेली एक चीज़ साथ थी.. हाँ, वो वही थी | घडी की टिक-टिक के साथ, जानवरों का शोर... उस रात वो कुछ तो मशगुल थी... कुछ ढूंडती उस सन्नाटे में, यादों का पिटारा खोली थी, ये सोचती की इस दुनिया में कौन अपना, कौन पराया , बस अपनी परछाई पहचानी थी | सोचती की ओहदा बड़ा कि इंसानियत.. दुनियादारी अभी समझी थी, लोगो को अभी जाना था... फिर से वो वही अटकी थी | यादों की मीठी चाशनी में करेले की कर्वाहट घोली थी, लोगो को बिना जांचे ,अपना बनाने की जो ठानी थी... हँसते, हँसते रोने की आदत जो उसने पाली थी, हँसते, हँसते रोने की आदत जो उसने पाली थी |
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